Monday 22 July 2013

शहीदों का मजहब देखकर यूपी की सपा सरकार मुवावजा तय करती है ... यदि मरने वाला मुस्लिम है तो फिर सारे नियम कायदे कानून से परे बेईतिहा मुवावजा और परिवार के पांच लोगो को सरकारी नौकरी .. और यदि शहीद होने वाला हिन्दू है तो सिर्फ नियमानुसार मिलने वाला विभागीय मुवावजा और एक नौकरी



तारीख 24 जून है और दोपहर के डेढ़ बजे हैं. इलाहाबाद के कालिंदीपुरम इलाके में रहने वाली 36 वर्षीया राजरेखा द्विवेदी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) के कमरे में अपने पति की मौत के बाद मिलने वाली विभागीय मदद की जानकारी ले रही हैं. 10 दिन पहले उस वक्त राजरेखा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, जब 14 जून को उनके पति और इलाहाबाद के बारा थाना प्रभारी 38 वर्षीय आर.पी. द्विवेदी की दोपहर साढ़े बारह बजे बदमाशों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. द्विवेदी चोरी की गई इंडिगो कार बरामद करने के लिए बदमाशों का पीछा कर रहे थे. एसएसपी मोहित अग्रवाल एक कागज पर हिसाब लगाकर बताते हैं कि दिवंगत थाना प्रभारी को मिलने वाली सभी सेवा निधियों का कुल जोड़ 25 लाख रु. बैठता है, जिसमें ड्यूटी के दौरान शहीद होने पर सरकार से मिलने वाली विशेष अनुग्रह राशि भी शामिल है.
राजरेखा नौकरी के बारे में पूछती हैं तो एसएसपी जवाब देते हैं कि यह परिवार के किसी एक सदस्य को मिलेगी. राजरेखा ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं. दो बच्चे हैं. बेटा नौवीं क्लास में पढ़ता है और बेटी पांचवीं में. एसएसपी बताते हैं कि सरकारी नियमों के मुताबिक पांच साल बाद बेटे के बड़े हो जाने पर योग्यता के मुताबिक नौकरी दी जाएगी. करीब 15 मिनट बाद राजरेखा बाहर निकल आती हैं, लेकिन उनके चेहरे पर असंतुष्टि का भाव साफ झलक रहा है. राजरेखा तो ज्यादा कुछ नहीं कहतीं, लेकिन उनके साथ आए दिवंगत आर.पी. द्विवेदी के बड़े भाई संजय द्विवेदी कहते हैं, ‘हमें यकीन था कि सरकार परिवार के दो लोगों को नौकरी देने के साथ कम-से-कम 50 लाख रु. की सहायता भी देगी जैसा एक डिप्टी एसपी के मामले में हुआ था.’

संजय अपने भाई की शहादत पर कुछ वैसे ही सम्मान की आस सरकार से लगाए बैठे हैं, जैसा मार्च में प्रतापगढ़ की तहसील कुंडा के बलीपुर गांव में बदमाशों के हाथों मारे गए डिप्टी एसपी जिया उल हक के परिवार को मिला था. इस सनसनीखेज हत्याकांड ने सपा सरकार को इस कदर दबाव में ला दिया कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने डिप्टी एसपी के परिवार को न सिर्फ 50 लाख रु. मुआवजा दिया, बल्कि दिवंगत जिया की पत्नी परवीन आजाद को लखनऊ पुलिस मुख्यालय में विशेष कार्याधिकारी और छोटे भाई सोहराब अली को गोरखपुर पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय में आरक्षी (कल्याण) का पद भी दिया.

हालांकि सरकार ने पहले उनके परिवार से पांच लोगों को नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन बाद में सिर्फ दो को ही नौकरी मिली. पति को खोने के सदमे के साथ बीडीएस की आखिरी साल की पढ़ाई और नौकरी के साथ न्याय की जंग लड़ रही परवीन भी तनाव में है. जुलाई में होने वाली परीक्षा और इंटर्नशिप पूरी करने के लिए परवीन ने पुलिस महानिदेशक और मुख्यमंत्री से एक साल के अवकाश के लिए आवेदन किया था, लेकिन उस पर फैसला अभी लंबित है. दिवंगत जिया उल हक के परिवार को देखकर इस बात का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि घर के एक कमाऊ सदस्य के अचानक न रहने पर किस तरह की मुसीबतें आ खड़ी होती हैं, जिनके आगे फौरी तौर पर सरकारी मदद बौनी साबित होती है.

अगर जिया उल हक के परिवार का यह हाल है तो उन शहीद अधिकारियों और कर्मचारियों के पारिवारिक हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिन्हें मामूली मदद से ही संतोष करना पड़ा.

जिया की हत्या के बाद 30 मई को आगरा के ग्राम हथिया में क्राइम ब्रांच के आरक्षी सतीश, 5 जून को सहारनपुर के थाना चिलकाना क्षेत्र में आरक्षी राहुल राठी, 7 जून को बरेली के कैंट थाना क्षेत्र में आरक्षी चालक अनिरुद्ध यादव भी बदमाशों की धरपकड़ के दौरान गोलियों का शिकार हो गए थे. इन शहीद पुलिसकर्मियों के परिवारों के लिए भी अन्य सेवा निधियों के अलावा सरकार की ओर से 10 लाख रु. की ही अनुग्रह राशि मंजूर की गई.

पिछले कुछ दिनों से सरकार के मुआवजा बांटने के तौर-तरीकों पर सवाल उठ रहे हैं. सरकार ने प्रतापगढ़ के बलीपुर गांव के पूर्व प्रधान नन्हे यादव और उनके छोटे भाई सुरेश यादव की हत्या के बाद उनके परिवार को 20-20 लाख रु. मुआवजा दिया, जबकि नन्हे यादव का बेटा योगेंद्र, भाई सुधीर और सुरेश यादव का भाई यादवेंद्र जिया की हत्या के आरोपी हैं.

सवाल मई में पुलिस हिरासत में कथित आतंकी खालिद मुजाहिद की मौत के बाद उसके परिवार को 6 लाख रु. मुआवजा देने पर भी उठ खड़े हुए हैं. हालांकि खालिद के ताऊ जहीर आलम फलाही ने सरकारी मदद लौटा दी. वे कहते हैं, ‘जितना पैसा सरकार दे रही है उससे सात गुना हम लोगों ने खालिद को छुड़ाने के लिए मुकदमेबाजी में खर्च किया है. जिया के कातिलों को भी सरकार ने 40 लाख रु. दिए और हमें छह लाख रु. देकर क्या कहना चाहती है? हम ये पैसा लेकर अपना सिर नहीं झुकाना चाहते.’

हिरासत में खालिद मुजाहिद की मौत से उपजे आक्रोश को थामने के लिए सरकार ने मुआवजे की घोषणा की, लेकिन पिछले दो महीने के दौरान हिरासत में मौत के करीब एक दर्जन मामले सामने आए और इनमें से किसी भी मृतक के परिवार को मुआवजा नहीं दिया गया.

राजनैतिक विश्लेषक इसे सपा की राजनैतिक मजबूरी करार दे रहे हैं. प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले मेरठ कॉलेज में अर्थशास्त्र के रीडर डॉ. मनोज सिवाच कहते हैं, ‘सपा को लगता है कि मुसलमान-यादव गठबंधन विधानसभा चुनाव में उनकी जीत का अहम कारण था. ऐसे में पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें किसी भी तरह नाराज नहीं करना चाहती.’ मुआवजे के इस मनमाने रवैये के विरोध में बीजेपी पूरे प्रदेश में प्रदर्शन कर चुकी है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते हैं, ‘सपा सरकार मुस्लिम तुष्टीकरण की हदें पार कर चुकी है. एक आतंकी की मौत पर उसके परिवार को मुआवजा देना इसका साफ उदाहरण है. शहीद पुलिस कर्मियों के परिवारों की जितनी मदद की जाए, कम है. लेकिन विशेष जाति के लिए खजाना लुटा देना जातिवाद और संप्रदायवाद को बढ़ावा देना है.’

जौनपुर निवासी 35 वर्षीया सीमा देवी के पति रमेश प्रसाद राजकीय इंटर कॉलेज में अध्यापक थे. 2011 में उनकी मृत्यु के बाद शिक्षा विभाग ने रमेश की पहली पत्नी को अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति दी. सीमा रमेश की दूसरी पत्नी हैं. जिया के परिवार में दो लोगों को नौकरी देने के निर्णय को आधार बनाकर सीमा देवी ने मई में इलाहाबाद हाइकोर्ट में याचिका दायर कर रमेश की दूसरी पत्नी होने के नाते सरकारी नौकरी की मांग की. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति ए.पी. साही ने सरकार से पूछा कि किन प्रावधानों के तहत जिया की पत्नी और भाई को सरकारी नौकरी दी गई है? छह जून को कोर्ट में मौजूद प्रमुख सचिव गृह आर.एम. श्रीवास्तव जिया उल हक के भाई सोहराब अली को नौकरी देने का कोई वाजिब जवाब कोर्ट को न दे सके. अब कोर्ट ने मुख्य सचिव जावेद उस्मानी को पक्षकार बनाते हुए उनसे जवाब मांगा है. आरटीआइ एक्टिविस्ट नूतन ठाकुर ने भी हाइकोर्ट में याचिका दायर कर एक जैसे मामले में अलग सरकारी मदद दिए जाने को कठघरे में खड़ा किया है. नूतन ठाकुर कहती हैं, ‘सरकारी नियमों में शहीद पुलिस कर्मियों को उनके रैंक के आधार पर आर्थिक मदद देने का कोई प्रावधान नहीं है.’
इलाहाबाद की डॉ. मधुलिका पाठक ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कुछ सवाल उठाए हैं. उनके पति डॉ. मणि प्रसाद पाठक कानपुर में क्षेत्राधिकारी, कलेक्टरगंज के साथ प्रभारी स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के रूप में तैनात थे. 13 जून, 2007 को बहेलिया गैंग से मोर्चा लेते हुए वे शहीद हो गए थे. मधुलिका कहती हैं, ‘पुलिस विभाग ने मेरी शैक्षिक योग्यता को दरकिनार करते हुए दारोगा की नौकरी लेने को कहा. अगर सरकार जिया उल हक की पत्नी को पुलिस विभाग में ओएसडी बना सकती है तो उससे कम योग्यता न रखने पर मुझे भी ऐसे ही स्तर की नौकरी मिलनी चाहिए.’
मुआवजा बांटने में सपा सरकार ने जिस तरह से भेदभाव किया है उससे समाज में कुछ जातियों और समुदायों के बीच खिंची लकीर का रंग गहरा हो गया है. तार्किक, सुस्पष्ट और एक समान मुआवजा नीति बनाकर ही सरकार इस लकीर को हल्का कर सकती है. (साथ में कुमार हर्ष)

मुंह देखा मुआवजा
हर मौत बराबर नहीं होती. भारत में मुआवजे को लेकर सरकारी स्तर पर अराजकता इसका प्रमाण है. जब कोई घटना घट जाती है और चारों तरफ शोर मचता है तो प्रशासन मुआवजे की घोषणा कर अपना पिंड छुड़ा लेता है. लेकिन यहां भी दिक्कत यह है कि किसे कितना मुआवजा दिया जाएगा, इसके बारे में राज्य या केंद्र सरकार के पास कोई नीति नहीं है. बल्कि मुआवजों के ट्रेंड को देखें तो कई बार यह लगता है कि मीडिया के शोर और जनता के गुस्से को दबाने के लिए जब जितनी रकम सरकार की समझ में आती है, उतनी रकम तुरंत घोषित कर दी जाती है.

उत्तराखंड की मौजूदा त्रासदी में हजारों लोगों की मौत होने के बावजूद अभी तक यह साफ नहीं है कि मरने वालों को कितना मुआवजा दिया जाएगा. हां, केदारनाथ में 25 जून को वायु सेना के हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मारे गए 19 लोगों में से उत्तर प्रदेश निवासी दो सैनिकों अखिलेश कुमार सिंह और सुधाकर यादव को उत्तर प्रदेश सरकार ने 20-20 लाख रु. मुआवजा देने की घोषणा की. लेकिन बाकी सैनिकों को क्या मिलेगा, इसका अभी कुछ पता नहीं है. आदमी की जान तो खैर अनमोल है, लेकिन एक से मामलों में मुआवजे के अलग-अलग पैमाने क्या आदमी-आदमी की मौत में फर्क नहीं करते.

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश सरकार ने पुलिस हिरासत में बीमारी की वजह से मारे गए आतंकवाद के आरोपी खालिद मुजाहिद के परिवार को 6 लाख रु. मुआवजा देने की घोषणा की. यह घटना 18 मई की है तो इससे महज एक दिन पहले 17 मई को छत्तीसगढ़ सरकार और केंद्र सरकार ने बीजापुर जिले में सीआरपीएफ की गोली से मारे गए 8 आदिवासियों में से प्रत्येक के परिवार को 8-8 लाख रु. देने की घोषणा की. एक दिन के अंतर पर घोषित दो मुआवजे जिंदगी की कीमत लगाने में एक लाख रु. का अंतर कर रहे हैं. 19 मार्च को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में बस दुर्घटना में 37 लोगों की मौत के मामले में परिजनों को प्रति व्यक्ति 2 लाख रु. मुआवजा दिया गया. दूसरी तरफ पिछले साल दिसंबर में दिल्ली गैंग रेप का शिकार हुई युवती के परिजनों को कुल मिलाकर 50 लाख रु. से ऊपर का मुआवजा दिया गया और उसके भाई को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय उड़ान अकादमी, रायबरेली में दाखिला भी दिया गया. हालांकि बलात्कार के मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग ने जो गाइड लाइन तैयार की है, उसके मुताबिक बलात्कार पीड़िता के घर का कमाऊ सदस्य होने की स्थिति में दो लाख रु. और सामान्य सदस्य होने पर एक लाख रु. मुआवजा देने का प्रावधान है. यह जान की एक और अलग कीमत है.

अपने संज्ञान में आने वाली ज्यादातर घटनाओं पर मुआवजे का निर्देश देने वाले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी मुआवजा देने के लिए कोई तय प्रणाली अब तक नहीं बनाई है. ले-देकर अगर कहीं विधिवत मुआवजा प्रणाली है तो वह केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) के लिए बनार्ई गई है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री आर.पी.एन. सिंह ने इस साल 30 अप्रैल को लोक सभा को बताया कि सीएपीएफ का कोई सदस्य अगर डयूटी के दौरान मारा जाता है तो उसके परिजन को एक मुश्त 15 लाख रु. मुआवजा देने का प्रावधान है. इसके अलावा परिवार को पेंशन भी दी जाएगी. वैसे भी सरकारी विभागों में कर्मचारी के मरने पर अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति की व्यवस्था है.

लेकिन आम नागरिक के बारे में सरकार कोई एक समान व्यवस्था बनाने की पहल करती नहीं दिखती. मीडिया की सुर्खियों से दूर होने वाली दुर्घटना मौत के मामले में मुआवजा तो दूर इस बात तक की व्यवस्था नहीं है कि बीमा दावे के लिए चलने वाली कानूनी कार्यवाही को कितने दिन में पूरा किया जाए. सड़क दुर्घटना के मामलों में मारे गए व्यक्ति का परिवार अकसर सालों साल मुकदमे की झंझट में पड़ा रहता है.

कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों अपने लिहाज से मुआवजे की घोषणा कर देती हैं. इसके साथ ही दबाव देखकर पेट्रोल पंप का लाइसेंस, परिवार के एक या एक से ज्यादा सदस्य को सरकारी नौकरी का वादा भी कर दिया जाता है. इस मुंह देखे सरकारी अंदाज से ऐसा लगता है कि सरकारी आंखों में आम आदमी की जिंदगी की कीमत दबाव के मोलभाव की मोहताज है.

No comments: