गुजरात आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक मोर्चे पर लगातार प्रगति कर रहा है। विकास के मोर्चे पर वह पूरे भारत में सबसे आगे है। भारत के सभी बड़े उद्योगपति गुजरात में पूंजी लगाने को लालायित हैं। रतन टाटा की नैनो कार के कारखाने को आकर्षित करने के लिए कितने मुख्यमंत्रियों ने प्रयास किया, किंतु उन्होंने गुजरात को सुरक्षित माना।
मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, भारती
समूह आदि सब उद्योगपति मोदी को
सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री मानते हैं और उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बनते
देखना चाहते हैं। पिछले आठ वर्षों में गुजरात ने सर्वाधिक विदेशी निवेश
आकर्षित किया है। गुजरात सरकार की अनेक कल्याणकारी योजनाओं ने समाज के
दुर्बल, गरीब और पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ने का अवसर दिया है। वहाँ के गरीब
मेलों में गरीबों को हाथों हाथ आर्थिक सम्बल मिला है। ऐसी कल्याणकारी
योजनाओं की लम्बी सूची है।
किंतु सत्तालोभी को न विकास से प्यार है, न लोकतंत्र में विश्वास। वह परदे के पीछे षड्यंत्री कूटनीति का चक्रव्यूह रचकर उसमें पांडव पक्ष के अभिमन्यु अर्थात् नरेन्द्र मोदी को छल द्वारा सत्ता से हटा देना चाहता है। षड्यंत्री राजनीति के इस चक्रव्यूह की रचना में उसके सात महारथी पिछले आठ साल से जुटे हुए हैं। इन सात में पहला नाम है-मुम्बई की तीस्ता जावेद का, जो "सीतलवाड" आवरण में अपना "जावेद" परिचय छिपाती है। दूसरा नाम है दिल्ली की शबनम हाशमी का, जो अनहद नामक संस्था के आवरण में काम करती है। तीसरा नाम है कैथोलिक चर्च के अमदाबाद स्थित फादर सेड्रिक प्रकाश का, चौथा नाम है एक पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर का, जिसने 2002 के दंगों के समय बड़े नाटकीय ढंग से आईएएस अधिकारी पद से त्यागपत्र देकर विदेशी फंड से पोषित किसी स्वयंसेवी संस्था का दामन पकड़ लिया। पाँचवाँ नाम है एक एडवोकेट मुकुल सिन्हा का, जो जनसंघर्ष मंच के नाम से काम करता है। छठा नाम है गुजरात में नियुक्त एक केरलीय पुलिस अधिकारी श्रीकुमार का, जो अपनी कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि के कारण लगातार मुख्यमंत्री विरोधी षड्यंत्रों में लिप्त रहा है। और सातवाँ नाम है सोनिया के विश्वस्त सलाहकार अहमद पटेल का, जो इन षड्यंत्रकारियों और 10, जनपथ के बीच सम्पर्क पुल का काम करते रहे हैं।
यदि आप ध्यानपूर्वक 2002 से अब तक मीडिया में गुजरात संबंधी अपप्रचार के प्रसंगों का अध्ययन करेंगे तो प्रत्येक प्रसंग के पीछे आपको इनमें से किसी न किसी षड्यंत्रकारी का चेहरा नजर आ जाएगा। यह तीस्ता जावेद ही है जिसने अमदाबाद के कुतुबुद्दीन नामक दर्जी के हाथ जोड़े, आंसू बहाते चेहरे को "हिन्दू हिंसा" के शिकार के रूप में भारत और विदेशी मीडिया में स्थापित किया। इसके विपरीत "हिन्दू हिंसा" के प्रतीक रूप में एक काल्पनिक राक्षसी चेहरे को माथे पर पट्टी बांधे, छाती पर राक्षस की प्रतिमावाली शर्ट पहने और हाथ में डंडा उठाये प्रचारित किया गया। ये दो चेहरे "गुजरात के प्रतीक" बनकर जनमानस पर छा गये।
प्रचारित किया गया कि "कुतुबुद्दीन के मकान को 10,000 की विशाल हिंसक हिन्दू भीड़ ने घेरा हुआ है, वह मकान की पहली मंजिल पर खड़ा होकर हाथ जोड़कर, आंसू बहाकर भीड़ से प्राणों की भीख मांग रहा है। लेकिन भीड़ नहीं मानी।" आश्चर्य है कि जिस कैमरे ने कुतुबुद्दीन के चेहरे का चित्र खींचा उसने उस "हिंसक भीड़" का चित्र क्यों नहीं खींचा? भंडा फोड़ हो जाने के भय से तीस्ता कुतुबुद्दीन को अमदाबाद से मुम्बई ले गयी। वहाँ कई महीने तक उसे मीडिया की नजरों से छिपाकर रखा। और, एक दिन उससे एक प्रेस कांफ्रेंस में कहलवाया कि "मेरी जान को खतरा है" अत: सुरक्षा के नाम पर उसे मुम्बई से प.बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार के सुरक्षा घेरे में भेज दिया। कई महीने तक वहाँ की नजरबंदी से ऊब कर कुतुबुद्दीन अमदाबाद वापस आ गया और उसने पत्रकारों को बताया कि उसका राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और वह ऐसी राजनीति से ऊब चुका है, वह शांति की जिंदगी जीना चाहता है और उसे अमदाबाद में कोई खतरा नहीं है।
चोर-चोर मौसेरे भाई
इसी प्रकार तीस्ता ने वडोदरा के बेस्ट बेकरी मामले की "प्रत्यक्षदर्शी" गवाह के रूप में जाहिरा शेख का दुरुपयोग किया। उसे भी लम्बे समय तक मुम्बई में छिपाकर रखा। वह हर छठे-सातवें महीने कोई न कोई षड्यंत्री धमाका करके मीडिया का ध्यान 2002 के दंगों पर केन्द्रित करती रही है। गुजरात के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में जितने मामले चल रहे हैं उन सबके पीछे तीस्ता का हाथ साफ दिखाई देता है। उसकी इन "सेवाओं" के लिए ही सोनिया गाँधी ने 2004 में केन्द्र में सत्तारूढ़ होते ही उसे पद्म पुरस्कार से नवाजकर सम्मानित किया। जहाँ तक मुझे स्मरण है, 1996 के लोकसभा चुनावों के समय उसने दिल्ली में पृथ्वीराज रोड पर किसी कांग्रेसी सांसद की कोठी से भाजपा विरोधी प्रचार अभियान चलाया था। दैनिक पत्रों में "कम्युनलिज्म कोम्बेट" की ओर से बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाये थे, जिनका पैसा सोनिया पार्टी के कोष से चुकाया गया था। आश्चर्य है कि राष्ट्रवादी शिविर ने अब तक इस शातिर महिला की गतिविधियों, राजनीतिक संबंधों एवं आर्थिक रुाोतों का कच्चा चिट्ठा तैयार करने की आवश्यकता अनुभव नहीं की!
इस षड्यंत्री राजनीति के चक्रव्यूह का एकमात्र लक्ष्य है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर राक्षसी छवि थोपकर उन्हें अकेले घेरकर द्वापर के अभिमन्यु की गति प्राप्त कराना। किंतु यह अभिमन्यु हर बार चक्रव्यूह को भेदकर बाहर निकल आता है और षड्यंत्री नई व्यूह रचना की खोज में लग जाते हैं। कभी वे उसे सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के सामने घसीटने का प्रयास करते हैं, कभी मुठभेड़ में मारे गये सोहराबुद्दीन और इशरत जहाँ की जांच के नाम पर सीबीआई के घेरे में लाना चाहते हैं। कभी वे गुजरात के मामलों को गुजरात के बाहर भेजने की गुहार लगाते हैं। इन सब प्रयासों का एकमात्र उद्देश्य रहता है नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की साख पर बट्टा लगाना। इसलिए इनकी ओर से जैसे ही कोई कदम उठता है सोनिया पार्टी का प्रचार तंत्र नरेन्द्र मोदी के त्यागपत्र का शोर मचाने लगता है। इस बार एस.आई.टी. के सामने मुख्यमंत्री की पेशी को लेकर सोनिया पार्टी ने अपने मीडिया समर्थकों के माध्यम से मुख्यमंत्री पद से नरेन्द्र मोदी के त्यागपत्र का इतना शोर मचाया कि उन्हें विश्वास हो गया कि इस बार तो वे बाजी जीत ही जाएगी। किंतु नरेन्द्र मोदी ने संविधान और न्यायप्रणाली में पूर्ण आस्था प्रगट करके बिना किसी घबराहट के, मुस्कुराते हुए पूर्ण आत्मविश्वास के साथ विशेष जांच दल के सामने उपस्थित होकर दो किश्तों में पूरे 9 घंटे तक प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का आदर किया।
किंतु सत्तालोभी को न विकास से प्यार है, न लोकतंत्र में विश्वास। वह परदे के पीछे षड्यंत्री कूटनीति का चक्रव्यूह रचकर उसमें पांडव पक्ष के अभिमन्यु अर्थात् नरेन्द्र मोदी को छल द्वारा सत्ता से हटा देना चाहता है। षड्यंत्री राजनीति के इस चक्रव्यूह की रचना में उसके सात महारथी पिछले आठ साल से जुटे हुए हैं। इन सात में पहला नाम है-मुम्बई की तीस्ता जावेद का, जो "सीतलवाड" आवरण में अपना "जावेद" परिचय छिपाती है। दूसरा नाम है दिल्ली की शबनम हाशमी का, जो अनहद नामक संस्था के आवरण में काम करती है। तीसरा नाम है कैथोलिक चर्च के अमदाबाद स्थित फादर सेड्रिक प्रकाश का, चौथा नाम है एक पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर का, जिसने 2002 के दंगों के समय बड़े नाटकीय ढंग से आईएएस अधिकारी पद से त्यागपत्र देकर विदेशी फंड से पोषित किसी स्वयंसेवी संस्था का दामन पकड़ लिया। पाँचवाँ नाम है एक एडवोकेट मुकुल सिन्हा का, जो जनसंघर्ष मंच के नाम से काम करता है। छठा नाम है गुजरात में नियुक्त एक केरलीय पुलिस अधिकारी श्रीकुमार का, जो अपनी कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि के कारण लगातार मुख्यमंत्री विरोधी षड्यंत्रों में लिप्त रहा है। और सातवाँ नाम है सोनिया के विश्वस्त सलाहकार अहमद पटेल का, जो इन षड्यंत्रकारियों और 10, जनपथ के बीच सम्पर्क पुल का काम करते रहे हैं।
यदि आप ध्यानपूर्वक 2002 से अब तक मीडिया में गुजरात संबंधी अपप्रचार के प्रसंगों का अध्ययन करेंगे तो प्रत्येक प्रसंग के पीछे आपको इनमें से किसी न किसी षड्यंत्रकारी का चेहरा नजर आ जाएगा। यह तीस्ता जावेद ही है जिसने अमदाबाद के कुतुबुद्दीन नामक दर्जी के हाथ जोड़े, आंसू बहाते चेहरे को "हिन्दू हिंसा" के शिकार के रूप में भारत और विदेशी मीडिया में स्थापित किया। इसके विपरीत "हिन्दू हिंसा" के प्रतीक रूप में एक काल्पनिक राक्षसी चेहरे को माथे पर पट्टी बांधे, छाती पर राक्षस की प्रतिमावाली शर्ट पहने और हाथ में डंडा उठाये प्रचारित किया गया। ये दो चेहरे "गुजरात के प्रतीक" बनकर जनमानस पर छा गये।
प्रचारित किया गया कि "कुतुबुद्दीन के मकान को 10,000 की विशाल हिंसक हिन्दू भीड़ ने घेरा हुआ है, वह मकान की पहली मंजिल पर खड़ा होकर हाथ जोड़कर, आंसू बहाकर भीड़ से प्राणों की भीख मांग रहा है। लेकिन भीड़ नहीं मानी।" आश्चर्य है कि जिस कैमरे ने कुतुबुद्दीन के चेहरे का चित्र खींचा उसने उस "हिंसक भीड़" का चित्र क्यों नहीं खींचा? भंडा फोड़ हो जाने के भय से तीस्ता कुतुबुद्दीन को अमदाबाद से मुम्बई ले गयी। वहाँ कई महीने तक उसे मीडिया की नजरों से छिपाकर रखा। और, एक दिन उससे एक प्रेस कांफ्रेंस में कहलवाया कि "मेरी जान को खतरा है" अत: सुरक्षा के नाम पर उसे मुम्बई से प.बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार के सुरक्षा घेरे में भेज दिया। कई महीने तक वहाँ की नजरबंदी से ऊब कर कुतुबुद्दीन अमदाबाद वापस आ गया और उसने पत्रकारों को बताया कि उसका राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और वह ऐसी राजनीति से ऊब चुका है, वह शांति की जिंदगी जीना चाहता है और उसे अमदाबाद में कोई खतरा नहीं है।
चोर-चोर मौसेरे भाई
इसी प्रकार तीस्ता ने वडोदरा के बेस्ट बेकरी मामले की "प्रत्यक्षदर्शी" गवाह के रूप में जाहिरा शेख का दुरुपयोग किया। उसे भी लम्बे समय तक मुम्बई में छिपाकर रखा। वह हर छठे-सातवें महीने कोई न कोई षड्यंत्री धमाका करके मीडिया का ध्यान 2002 के दंगों पर केन्द्रित करती रही है। गुजरात के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में जितने मामले चल रहे हैं उन सबके पीछे तीस्ता का हाथ साफ दिखाई देता है। उसकी इन "सेवाओं" के लिए ही सोनिया गाँधी ने 2004 में केन्द्र में सत्तारूढ़ होते ही उसे पद्म पुरस्कार से नवाजकर सम्मानित किया। जहाँ तक मुझे स्मरण है, 1996 के लोकसभा चुनावों के समय उसने दिल्ली में पृथ्वीराज रोड पर किसी कांग्रेसी सांसद की कोठी से भाजपा विरोधी प्रचार अभियान चलाया था। दैनिक पत्रों में "कम्युनलिज्म कोम्बेट" की ओर से बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाये थे, जिनका पैसा सोनिया पार्टी के कोष से चुकाया गया था। आश्चर्य है कि राष्ट्रवादी शिविर ने अब तक इस शातिर महिला की गतिविधियों, राजनीतिक संबंधों एवं आर्थिक रुाोतों का कच्चा चिट्ठा तैयार करने की आवश्यकता अनुभव नहीं की!
इस षड्यंत्री राजनीति के चक्रव्यूह का एकमात्र लक्ष्य है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर राक्षसी छवि थोपकर उन्हें अकेले घेरकर द्वापर के अभिमन्यु की गति प्राप्त कराना। किंतु यह अभिमन्यु हर बार चक्रव्यूह को भेदकर बाहर निकल आता है और षड्यंत्री नई व्यूह रचना की खोज में लग जाते हैं। कभी वे उसे सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के सामने घसीटने का प्रयास करते हैं, कभी मुठभेड़ में मारे गये सोहराबुद्दीन और इशरत जहाँ की जांच के नाम पर सीबीआई के घेरे में लाना चाहते हैं। कभी वे गुजरात के मामलों को गुजरात के बाहर भेजने की गुहार लगाते हैं। इन सब प्रयासों का एकमात्र उद्देश्य रहता है नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की साख पर बट्टा लगाना। इसलिए इनकी ओर से जैसे ही कोई कदम उठता है सोनिया पार्टी का प्रचार तंत्र नरेन्द्र मोदी के त्यागपत्र का शोर मचाने लगता है। इस बार एस.आई.टी. के सामने मुख्यमंत्री की पेशी को लेकर सोनिया पार्टी ने अपने मीडिया समर्थकों के माध्यम से मुख्यमंत्री पद से नरेन्द्र मोदी के त्यागपत्र का इतना शोर मचाया कि उन्हें विश्वास हो गया कि इस बार तो वे बाजी जीत ही जाएगी। किंतु नरेन्द्र मोदी ने संविधान और न्यायप्रणाली में पूर्ण आस्था प्रगट करके बिना किसी घबराहट के, मुस्कुराते हुए पूर्ण आत्मविश्वास के साथ विशेष जांच दल के सामने उपस्थित होकर दो किश्तों में पूरे 9 घंटे तक प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का आदर किया।
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