Wednesday 9 May 2012

वोट की गन्दी राजनीती और कांग्रेस का गन्दा चेहरा




राजस्थान के बंसवाड़ा ज़िले की एक घटना है. 6 मई, 1993 को गढ़ी तहसील के नोखला गांव का राव जी उर्फ रामचंद्र अपनी पत्नी, तीन बच्चों और एक पड़ोसी की हत्या कर देता है. मामला ज़िला अदालत पहुंचता है, जहां उसे फांसी की सज़ा सुनाई जाती है. फिर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी यह सज़ा बरक़रार रहती है. दो से ढाई सालों के बीच राव जी का मामला ज़िला अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक पूरा हो जाता है. इसके बाद राव जी राजस्थान के राज्यपाल के पास दया याचिका देता है, जिसे एक जनवरी, 1996 को अस्वीकार कर दिया जाता है. तब वह राष्ट्रपति के पास फरवरी 1996 में दया याचिका भेजता है. दो से तीन महीने के भीतर वहां से भी उसकी याचिका अस्वीकृत कर दी जाती है. मई 1996 में उसे फांसी के फंदे पर लटका दिया जाता है. यानी तीन साल के भीतर सारी प्रक्रिया ख़त्म. अब एक और घटना पर ग़ौर कीजिए.
संसद पर हमले का दोषी अफजल, जिसकी दया याचिका 2005 से लंबित है.

फांसी के फंदे पर सियासत या सियासत के फंदे में वह क़ानून, जो राज्यपाल और राष्ट्रपति को क्षमा दान का अधिकार देता है. सवाल यह है कि क्या सचमुच राष्ट्रपति ख़ुद अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करते हैं या इस अधिकार का इस्तेमाल भी सियासी लोग अपने फायदे के लिए करते हैं. राजीव गांधी के हत्यारों, भुल्लर एवं अ़फज़ल की दया याचिका और उन पर सरकार का रुख़ कुछ ऐसे ही सवालों को सामने लाता है.

अब इन तीन घटनाओं के क्या अर्थ हैं? ज़ाहिर है, ये घटनाएं कई सवाल पैदा करती हैं. मसलन, जब अ़फज़ल मामले पर सरकार यह कहती है कि वह सभी दया याचिकाओं को एक-एक करके और क्रम में देख रही है, तो सवाल उठता है कि 2003 में दया याचिका भेजने वाले देवेंदर पाल सिंह भुल्लर की याचिका पर फैसला कैसे हो गया, जबकि राजीव गांधी के हत्यारों की दया याचिका वर्ष 2000 से लंबित है. दूसरा और सबसे अहम सवाल, क्या संविधान के अनुच्छेद 72, जिसमें राष्ट्रपति को यह अधिकार होता है कि वह किसी भी सज़ा पाए व्यक्ति की सज़ा को बदल सकते हैं या घटा सकते हैं, का इस्तेमाल राष्ट्रपति ख़ुद अपने विवेक से करते हैं. दरअसल, दया याचिका की पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल बनाई गई है कि आम आदमी के लिए इसे समझना मुश्किल है. जब सज़ा पाया कोई व्यक्ति अपनी दया याचिका राष्ट्रपति के पास भेजता है तो उसे सीधे गृह मंत्रालय के पास भेज दिया जाता है. फिर संबंधित राज्य सरकार अपनी राय देती है. इसके अलावा अनुच्छेद 72 में किसी भी दया याचिका पर निर्णय लेने के लिए किसी समय सीमा या दिशा-निर्देश का उल्लेख नहीं है. इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति इस बात के लिए बाध्य नहीं हैं कि किसी की दया याचिका पर कब तक निर्णय ले लेना है,

चूंकि राष्ट्रपति के पास दया याचिका से संबंधित सारे दस्तावेज़, राय एवं सुझाव इत्यादि केंद्रीय गृह मंत्रालय और संबंधित राज्य सरकार से आने होते हैं, इसलिए किसी दया याचिका पर अंतिम फैसला लेने में कितना व़क्त लग सकता है, यह राष्ट्रपति पर निर्भर नहीं करता. अभी भुल्लर मामले में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला. ऐसा नहीं है कि सरकार ने ख़ुद और पूरे मन से इस मामले में फैसला लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने भुल्लर की दया याचिका को 8 साल से लटकाने पर सवाल उठाए थे और हैरानी जताई थी. जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने इस पर प्रतिक्रिया दी, उसके दो दिनों बाद ही भुल्लर की याचिका ख़ारिज कर दी गई.

अ़फज़ल मामले में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ. पहले तो सरकार कहती रही कि मामला राष्ट्रपति के पास लंबित है, इसलिए वह कुछ नहीं कर सकती. दस्तावेज़ों से पता चला कि जिस दिन अफजल की दया याचिका राष्ट्रपति सचिवालय पहुंची, उसे तत्काल गृह मंत्रालय भेज दिया गया. वहां से उसे दिल्ली सरकार को भेज दिया गया और डेढ़-दो सालों तक दिल्ली सरकार ने इस संबंध में एक बैठक तक नहीं की. बाद में जब यह बात सामने आई, तब आनन-फानन में दिल्ली सरकार ने फाइल आगे बढ़ाई. हालांकि इस मामले में वोट बैंक की राजनीति तो साफ-साफ दिखती है, लेकिन अब तक राजीव गांधी के हत्यारों की 11 साल पुरानी दया याचिका पर फैसला क्यों नहीं लिया गया. गृहमंत्री पी चिदंबरम दया याचिकाओं पर क्रमवार फैसला लेने की बात कहते हैं, तो आख़िर उसी क्रम का उल्लंघन करके भुल्लर की 2003 से लंबित दया याचिका पर अंतिम फैसला क्यों और कैसे कर लिया गया? बहरहाल, फांसी पर सियासत कैसे होती है, इसका एक नमूना भुल्लर की दया याचिका ख़ारिज होते ही देखने को मिला. पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष अमरिंदर सिंह से लेकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और अकाली दल तक ने भुल्लर की फांसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदलने की वकालत की और कहा है कि वे मृत्युदंड के ख़िला़फ हैं. अकाली दल ने तो यहां तक कहा कि दारा सिंह पर धर्म परिवर्तन के मामले में ईसाइयों की हत्या का दोष सिद्ध हुआ था, लेकिन धार्मिकता और संवेदनशीलता के मद्देनज़र उसकी मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था. आख़िर यही पैमाना भुल्लर के मामले में क्यों नहीं अपनाया जा सकता.

जब अफजल मामले पर सरकार यह कहती है कि वह सभी दया याचिकाओं को एक-एक करके और क्रम में देख रही है, तो सवाल उठता है कि 2003 में दया याचिका भेजने वाले देवेंदर पाल सिंह भुल्लर की याचिका पर फैसला कैसे हो गया, जबकि राजीव गांधी के हत्यारों की दया याचिका 2000 से लंबित है. उत्तर प्रदेश के श्याम मनोहर, शिवराम, प्रकाश, सुरेश, रविंदर और हरीश की दया याचिका भी 1998 से लंबित है. आखिर इन मामलों में क्रम का ध्यान क्यों नहीं रखा गया?

बहरहाल, अदालत मानती है कि उम्रकैद नियम है, जबकि फांसी की सज़ा एक अपवाद. ऐसी सज़ा, जो रेयरेस्ट और रेयर मामले में दी जाती है. अदालत तो किसी दोषी को सज़ा (मृत्यु दंड) दे देती है, इस उम्मीद के साथ कि इससे समाज में एक अच्छा संदेश जाएगा. लोग ग़लत काम करने से डरेंगे, लेकिन राजनीति के सियासी फंदों में ऐसे आदेश को इस तरीक़े से उलझा दिया जाता है कि सज़ा से पैदा होने वाला डर ही ख़त्म हो जाता है.
अनुच्छेद 72 और 161 में फर्क़

अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी सजा पाए या अभिशंसित व्यक्ति की सज़ा को निरस्त करके उसे क्षमादान दे सकते हैं, उस सज़ा को कम कर सकते हैं, रोक सकते हैं या बदल सकते हैं. यह दया का अधिकार कोर्ट मार्शल और मृत्यु दंड पर भी प्रभावी है. इसी तरह राज्य के राज्यपाल को भी यह अधिकार दिए गए हैं अनुच्छेद 161 द्वारा, लेकिन दोनों में बहुत फर्क है. जहां राष्ट्रपति का यह अधिकार बहुत विस्तृत है, वहीं राज्यपाल के इस अधिकार का दायरा कम है. मृत्यु दंड के मामले में राज्यपाल सज़ा के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते. केवल राष्ट्रपति ही मृत्यु दंड को माफ़ कर सकते हैं या इसे घटाकर आजीवन कारावास में बदल सकते हैं. कोर्ट मार्शल के मामले में भी यही फर्क है. केवल राष्ट्रपति ही कोर्ट मार्शल के अंतर्गत दिए गए फैसले को कम कर सकते हैं.


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