Monday, 18 April 2011

बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 5)

बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 5)

by Jitendra Pratap Singh on Tuesday, April 12, 2011 at 10:49am
[पत्रकार श्री रामदास सोनी जी से सादर साभार ]
[यह लेख 6 लेखो की एक श्रृंखला है जिसमे भारत के हुक्मरानों के द्वारा की गयी 6 गंभीर भूलो को बताया गया है ]
बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 5)

भारतवासियों ने 1950 में संविधान की शपथ लेकर जन के तंत्र को स्वीकार किया। हमने कहा कि देश की संचालक आम जनता रहेगी। वह जनप्रतिनिधि चुनेगी और उनसे देश की सरकार चलवायेगी। अगर चलाने वालों ने अयोग्यता या भ्रष्ट आचरण का प्रदर्शन किया तो उन्हे बदल देगी। पूरें देश के संचालन के लिए एक व्यवस्था बनी, जो विधानसभा और लोकसभा के नाम से जानी जाने लगी।
वैसे भारत में गणराज्यों की व्यवस्था का पुराना इतिहास है। मालव, शूद्रक, वैशाली जैसे गणराज्यों का वर्णन भारतीय इतिहास में स्थान-स्थान पर मिलता है। हम भारत के लोग स्वभाव से ही प्रजातांत्रिक है। अधिनायकवाद हमें क्षणभर के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। तानाशाही चाहे तामसिक, राजसिक या सात्विक आवरण ओढ़कर भी आये तो वह भारतीयो को स्वीकार्य नहीं। अतिवाद और आतंकवाद से भारतीयों को घृणा है। इस देश ने कठमुल्लेपन को कभी महिमामण्डित नहीं किया, धर्मान्धता हमारे रक्त में नहीं है। ऐसे भारत के गणतंत्र में भी काला पन्ना लिखा गया।

प्रजातंत्र की इस मातृभूमि में 25 जून 1975 की मध्य रात्रि में सत्ता के चाटुकारों और दलालों द्वारा जनतंत्र से बलात्कार किया गया। रात के अंधेरे में सोते हुए भारत के गणतंत्र पर जो हिटलरी हमला हुआ, वह गत शताब्दी का चौथा काला पन्ना है। इसे लगाने वालों को भूलना स्वयं में सबसे बड़ा पाप है।
आपातकाल लगाने की पूर्व बेला में भारत के मूर्धन्य पत्रकार, प्रसिद्ध लेखक व संपादक श्री राजेन्द्र माथुर द्वारा लिखे गए एक संपादकीय के शब्दों को दोहराना यहां सामयिक रहेगा। अपने लेख में वे लिखते है - ''देश में आज का दिन चाटुकारों और जी-हजुरी करने वालों का बलि चढ़ गया, सही दिशा देने के बजाय वे चरण भक्त इंदिरा गांधी का स्तुतिगान करते रहे। पार्टी के नेता कहते रहे आप जैसा कोई नहीं है मैडम! आप तो आप है। हाईकोर्ट के निर्णय से क्या फर्क पड़ता है! हम सुप्रीम कोर्ट चले जायेगें, आप प्रधानमंत्री पद मत छोड़िये, आपके बगैर देश डूब जायेगा।''
हद तो तब हो गई कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता देवकांत बरूआ ''इन्दिरा इज इण्डिया एंड इण्डिया इज इंदिरा'' जैसे नारे लगाने लगे और साठ करोड़ दिलो की धड़कन एक नई पहचान बन गई। इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई, इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई जैसी कविताएं रची जाने लगी। वैसे चापलूसी कांग्रेस का मूल चरित्र रही है। चाटुकारिता का काम वे पल दो पल नहीं, 24 घण्टे,365 दिन और पूरा जीवन बड़ी सहजता से करते है।25 जून 1975 के बाद कुछ ही दिनों में लाखों लोग जेलों में ठूंस दिए गए। उन्हे अमानवीय यातनाएं दी गई। बोलने और लिखने की आजादी देश और देशवासियों से छीन ली गई। हिटलर और मुसोलीनी की अधिनायकवादिता को अनुशासन पर्व पर रैपर चढ़ा दिया गया। जेलों में बंद सामाजिक कार्यकर्ताओं के हाथ, पैरों के नाखून टेबल और कुर्सियों के पायों से दबा-दबाकर निकाले गए। उनके गुप्तांगों पर मरणांतक प्रहार किए गए। कई लोग अनाम मौत का शिकार हो गए। देश नारकीय कष्टों से गुजरा। एक क्षण के लिए लगा, क्या देश ऐसी सुरंग में चला गया है जिसका कभी अंत नहीं होगा। रह-रहकर शंका होने लगी कि अब हमारा अर्थात भारत का अंत निश्चित है!

अधिनायकवादी और अलोकतांत्रिक होना कांग्रेस का सहज स्वभाव है। वह धर्म के आधार पर भारत को बांटते समय भी दिखता है, त्रिपुरी सम्मेलन के घटनाक्रमों में भी नजर आता है, चीन की पराजय पर दिए गए जबाबों में भी साफ झलकता है। कांग्रेस का यह स्वभाव दोष कल भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। जैसे हिंसक प्राणी हिंसा से नहीं चूकता, वैसे ही कांग्रेस का नेतृत्व अधिनायकवादिता से नहीं चूकता। आपातकाल का अंत भी आपातकाल लगाने वालों के कारण नहीं हुआ था। वह दो प्रमुख कारणों से हुआ था।
एक - आपातकाल लगाने वाले कांग्रेस नेता इस गलतफहमी में थे कि हम चुनाव करवा कर फिर से शासन में आ जायेगें। उन्होने सोचा कि पड़ोसी देशों में जनतंत्र के नाम पर जिस प्रकार से चुनाव होते है, वैसे ही खानापूर्ति के लिए भारत में भी चुनाव करवाकर हम फिर पांच सालों के लिए सत्ता हथिया लेगें। लेकिन उनका यह अनुमान गलत निकला।
दूसरा - भारत इस प्रकार कर आततायी वृत्तियों से सदियों से लड़ता चला आया है। चूंकि भारतवासी प्रकृति से प्रजातांत्रिक, स्वभाव से सहिष्णु व हमला होने या करने पर अजेय योद्धा जैसा आचरण करते है इसलिए हम सही समय का इंतजार करते है, अपनी चेतना को कभी मरने नहीं देते। हम भारतीयों पर ज्यादा दबाब दो तो चुप हो जाते है, मजबूरी हो तो झुक भी जाते है। हमारे झुकने को कोई मिटना समझे और चुप रहने को कायरता मान बैठे तो यह प्रतिद्वंदी की सबसे बड़ी भूल होती है। भारत को गिरकर खड़ा होना बहुत अच्छी प्रकार से आता है। धर्म केन्द्रित हमारी इस सांस्कृतिक चेतना के कारण हमने कांग्रेस द्वारा थोपे गए आपातकाल को उखाड़ फेंका। कही आरएसएस ने नेतृत्व किया तो जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी व अन्य जन संगठनों ने। वस्तुतः आपातकाल का हटना ना तो कांग्रेस की हार थी न जनता पार्टी के लिए जीत। वह तो करोड़ों भारतीयों के द्वारा विश्व को दिया हुआ एक संदेश था, उन्होने गरजकर घोषणा की थी

हम आततायियों के आक्रमण से नहीं डरते, अत्याचारियों के दबाब के सामने नहीं झुकते, हम स्वभाव से प्रजातांत्रिक है और चेतना से स्वतंत्र है। कभी-कभी दूसरों को लग सकता है कि हम दब गए है या लड़खड़ा रहे है लेकिन उठकर, संभलकर किया हुआ हमारा पलटवार प्रतिद्वंदी के लिए प्राणांतक होता है। सच तो यह है कि हमारे प्रहार क्षेत्र में आया हुआ दुश्मन प्रहार के बाद पानी तक नहीं मांगता। हम अधिनायकवाद को जड़ मूल से उखाड़ फेंकते है, हमारा विरोध कभी किसी व्यक्ति से नहीं रहा, हमारा विरोध सदैव वृत्ति से रहा है। भारत के हर छोटे-बड़े, अपने-अपने स्थान पर नेतृत्व कर रहे या नेतृत्व करने की चाह रखने वाले नायको को यह एक मंत्र कंठस्थ कर लेना होगा। चाहे फिर वह नेतृत्व सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक या अन्य किसी क्षेत्र में हो। कोई बताने पर समझता है, कोई ठोकर खाकर समझता है, तो कोई सब कुछ खोकर समझता है। कांग्रेस की अधिनायकवादी नेतृत्व की वृत्ति कब और कैसे समझती है। वह 1977 में ठोकर खाकर तो नहीं समझती शायद सबकुछ खोकर समझ जाये। आपातकाल लगाकर कांग्रेस ने देश की गत शताब्दी का चौथा बड़ा पाप किया। आपातकाल लगाना व जनता को उसे भोगना भारतीय गणतंत्र के इतिहास में 2000 साल बाद भी शिक्षा व बोध कथाओं का हिस्सा बना रहेगा। बच्चों को पढ़ाया जाता रहेगा कि सन् 1975 में हमारे देश में एक ऐसा घृणित कार्य हुआ था। कांग्रेस नाम का एक राजनैतिक दल था, उसकी नेता इंदिरा गांधी नाम की महिला थी, उसने वा उसके साथियों ने देश में प्रजातंत्र की हत्या करने का प्रयास किया किंतु तत्कालीन भारतीय जनता ने उसे सिरे से नकार दिया।

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