Monday 18 April 2011

इन महापुरुषों के स्मारक क्यों नहीं?

इन महापुरुषों के स्मारक क्यों नहीं?

by Jitendra Pratap Singh on Friday, April 15, 2011 at 1:47am
इन महापुरुषों के स्मारक क्यों नहीं?

 हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीयों को स्वतंत्रता 1300 वर्षों के कठोर तथा सतत् संघर्ष के पश्चात मिली है। इसके लिए हजारों वीरों, संतों, भक्तों, सैनिकों, कवियों, कलाकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रयास किए। अत: स्वतंत्रता के पश्चात उन महापुरुषों के नए राष्ट्रीय स्मारक बनने चाहिए। क्या पृथ्वीराज चौहान, हेमचन्द्र विक्रमादित्य, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह के बलिदान को भुलाया जा सकता है? क्या महाकवि सूरदास, तुलसीदास, रैदास, गुरुनानक का योगदान कम है? नाना साहेब, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई के प्रयास किसी भी वर्तमान राजनीतिज्ञ से कम थे? देश का दुर्भाग्य है कि हमने स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द आदि को भुला दिया है। क्षुद्र राजनीति के कारण बंगाल में स्वामी विवेकानंद के जन्मस्थान को अनेक लोग जानते भी नहीं। राज राममोहन राय के घर पर आज भी एक छोटी-सी पट्टी लगी है। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय को कोई स्थान नहीं दिया जाता। यहां तक कि नेताजी सुभाष भी उपेक्षा के पात्र बने रहे। नवनिर्मित राष्ट्रीय स्मारकों में इनको उच्च स्थान तथा प्राथमिकता क्यों नहीं दी जानी चाहिए?
वासुदेव बलवन्त फड़के से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक देश पर बलिदान होने वालों की एक लम्बी श्रृंखला रही है, परन्तु भारत में उनके नाम पर कोई स्मारक, स्टेडियम, पार्क, विश्वविद्यालय, पु#ुस्तकालय आदि कुछ भी नहीं बनाया। वस्तुत: यह कृतघ्नता ही है कि शहीद भगत सिंह के अन्य दो साथियों के बारे में देश का युवा कुछ भी नहीं जानता। पंजाब में सुखदेव का कोई स्मारक नहीं, इसी भांति राजगुरु का वह स्थान जहां उन्होंने जन्म लिया था, आज खण्डित अवस्था में है। इलाहाबाद के कम्पनी बाग में, जो आज मोतीलाल पार्क कहलाता है, मुश्किल से एक कोने में वह भी छात्रों के संघर्ष के बाद, चन्द्रशेखरआजाद को स्थान मिल पाया।

सिर्फ गाँधी नेहरु परिवार  के स्मारक?

यह भी आश्चर्यजनक है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करने वाले भारत में नवनिर्मित स्मारकों में राजनीतिकों को ही प्रमुख रूप से स्थान दिया गया है। विश्वविद्यालय, स्टेडियम, बाजार, पार्क, चौराहा, एयरपोर्ट, गली, मोहल्ला सभी के नाम प्राय: सत्ताधारी पार्टी या उनके प्रमुखों के नाम पर हैं। इनमें से ही अधिकांश नेहरू-गांधी खानदान के नाम पर। यह ज्ञात नहीं कि ये सामन्तशाही के चिह्न कब तक बने रहेंगे?
प्रश्न यह है कि प्राचीन सांस्कृतिक विरासत तथा नवीन राष्ट्रीय स्मारकों के प्रति क्या नीति हो? आवश्यकता है कि नेशनल मोन्यूमेंट अथारिटी शीघ्रातिशीघ्र बने, जिसके सदस्य विशेषज्ञ हों। इसे राजनीति से दूर रखा जाए। जीवित व्यक्तियों की मूर्तियों या स्मारकों पर पूर्णत: प्रतिबंध हो। यह भारतीय परम्परा के भी अनुकूल नहीं है। उनके समाधि स्थल, मकबरे तथा स्मारक आने वाली पीढ़ियों पर छोड़ दिए जाएं।

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