मीडिया भी तो आये जनलोकपाल के घेरे में
by Jitendra Pratap Singh on Tuesday, April 12, 2011 at 10:58am
भ्रष्टाचार के खिलाफ 72 साल के सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के अनशन और आन्दोलन को भारत भर का मीडिया जबरदस्त कवरेज दे रहा है. इससे यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि इस देश का मीडिया भ्रष्टाचार के पूरी तरह से खिलाफ है, पर जानने वाले समझते हैं कि अन्ना हजारे को कवरेज देना मीडिया की मजबूरी है, क्योंकि जिस आन्दोलन में लाखों लोग स्वंयस्फूर्त जुड़ रहे हों उसकी अनदेखी करना मीडिया के लिये मुष्किल का काम है. वैसे मीडिया को एक मुद्दा चाहिये होता है जो उन्हें दिन भर को मसाला दे दे. मीडिया जिस तरह से अन्ना हजारे के आन्दोलन को समर्थन दे रहा है, उससे मीडिया के भ्रष्टाचार मुक्त होने की तस्वीर बनती है, पर क्या यह सचाई है?
यदि मीडिया वाले दिल पर हाथ रखकर सच कहें तो इसका उत्तर न में ही होगा. भ्रष्टाचार क्या सिर्फ किसी से रुपया लेना है? भ्रष्टाचार के तो हजारों रंग हैं. यदि आप पत्रकार हैं और किसी बिना लायसेंस में पकड़े गये व्यक्ति को अपने प्रभाव से यातायात पुलिस की गिरफ्त से छुड़वा देते हैं तो ये भी एक तरह का भ्रष्टाचार ही है. अपने अखबार का भय दिखाकर सरकारों से कौडि़यों के दाम जमीन ले लेना, फिर उसका कामर्शियल उपयोग कर उससे करोड़ों रूपये बनाना ये भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है. चुनावों के दौरान पैसे लेकर किसी एक पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में खबरें छापना और मतदाताओं को भरमाना भी भ्रष्टाचार है. अखबारों की आड़ में सरकारों को धमकाना और उनसे अपने धंधे के लिये सुविधायें लेना ये भी तो भ्रष्टाचार ही है. अपने पत्रकारों को बंधुआ मजदूर बनाकर उन्हें कभी भी सेवा से पृथक कर देना यह भी किसी व्यक्ति के साथ किया गया मानसिक भ्रष्टाचार है. विज्ञापन न देने वाले संस्थानों के खिलाफ समाचारों की सीरीज छापना और सौदा तय होने के बाद उसकी तारीफों के पुल बांधना ये भी भ्रष्टाचार का एक रूप ही तो है.
मीडिया देश की जनता को एक दिशा देता है. उसका काम ‘‘वॉच डाग’’ का है कि वह समाज में फैली बुराइयों असमानताओं को उजागर कर मजलूम और पीड़ित व्यक्ति की आवाज को बुलंद करे, पर कितने चैनल या अखबार हैं जो अपने इस पत्रकारीय धर्म को निभा रहे है. शायद उंगलियों पर इनकी संख्या गिनी जा सकती है. अखबारों की आड़ में दूसरे धंधे चलाना यह तो एक परिपाटी बन चुकी है. अब पत्रकार, पत्रकार नहीं होता वह एक नौकर के रूप में अखबारों में काम करता है, क्योंकि उसके हाथ में कलम तो होती है पर उसे लिखना क्या है यह अखबार का मलिक तय करता है, जो पत्रकार या संपादक मालिकों की इस तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाते हैं या अपनी मतभिन्नता प्रकट करते हैं वे दूसरे ही दिन संपादक के चेम्बर से बाहर खड़े से नजर आते हैं.
दूसरों के भ्रष्टाचार को बड़े बड़े हरफों में छापने और दिखाने वाले मीडिया को पहले अपने गरेबां में झांकना होगा कि वे भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे हैं. यदि जनलोकपाल बिल के घेरे में अधिकारी नेता, न्यायपालिका, सांसद, मंत्री सब आ रहे हैं तो मीडिया को उससे छूट क्यों? होना तो ये चाहिये कि इस लोकपाल बिल के घेरे में मीडिया भी आये क्योंकि अभी मीडिया की शिकायतों के लिये जो भी मंच बने हैं वे बिना नाखूनों वाले बूढ़े शेर हैं, जिनकी चिन्ता कोई मीडिया वाला नहीं करता चाहे वो प्रेस कांउसिल आफ इंडिया हो या फिर कोई दूसरी संस्था. यदि मीडिया वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ है, उसे लगता है कि भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है तो उसे सबसे पहले अपने घर में ही झाड़ू लगाने की शुरुआत करनी होगी और ये दिखाना होगा कि उसकी कथनी और करनी में कोइ फर्क नहीं है.
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