Wednesday, 20 April 2011

न्याय को नकारता चर्च

न्याय को नकारता चर्च

अब तक चर्च संगठन अपने खिलाफ किसी भी न्यायिक प्रशासनिक निर्णय को मानने से इंकार करता रहा है. चर्च कहता रहा है कि जस्टिस नियोगी की रिर्पोट को हम नही मानते, धर्मांतरण विरोधी कानून हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला हैं। डीपी वाधवा आयोग की रिर्पोट झूठ बोलती है। कंधमाल में हुए साप्रदायिक दंगों के बाद बनाए गए जस्टिस एस़सी मोहपात्रा आयोग की रिर्पोट दक्षिणपंथी संगठनों के प्रभाव में बनाई गई लगती है इसलिए यह विचार करने योग्य ही नही है। और अब ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दो विद्वान न्यायधीशों द्वारा ग्राहम स्टेन्स के काम-काज और धर्मांतरण पर की गई टिप्पणीयों पर नराजगी जाहिर करते हुए इसे फैसले से हटाने की मांग की जा रही है। चर्च का तर्क है कि इससे कंधमाल के मामलों पर असर पड़ेगा।

भारत का चर्च आज हर उस चीज को नकारने में लगा हुआ है जो उसके काम-काज पर अंगुली उठाती हो। देश भर में मिशनरियों के काम-काज के तरीकों और धर्म-प्रचार को लेकर स्वाल उठते रहे है और कई आयोगों और जांच एजेंसियों ने ईसाई समुदाय और बहूसंख्यकों के बीच बढ़ते तनाव को मिशनरियों की धर्मांतरण जैसी गतिविधियों को जिम्मेवार माना है परन्तु भारतीय चर्च नेता ऐसी रिर्पोटों को सिरे से ही खारिज कर देते है। पर हाल ही में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों की हत्या के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है उसके गंभीर मायने है और चर्च नेताओं को अब आत्म-मंथन की जरुरत है।

ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दारा सिंह को मृत्यु दंड दिए जाने की केन्द्रीय सरकार की मांग को नमंजूर करते हुए उसकी उम्र कैद की सजा को बरकरार रखा है। दारा सिंह के सहयोगी महेंद्र हेंब्रम को भी उम्र कैद की सजा सुनाई गई है। अन्य 11 अभियुक्तों को कोर्ट ने रिहा करने का आदेश दिया है। केन्द्रीय जांच ब्यूरों सीबीआई ने इस मामले में मृत्यु दंड की मांग की थी। ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो नाबलिग बेटों फिलिप और टिमोथी को ओडिशा के क्योंझर जिले के मनोहरपुर गांव में 22 जनवरी 1999 को भीड़ ने जिंदा जला दिया था। स्टेंन्स पिछले तीन दशकों से कुष्ठ रोगियों के साथ काम कर रहे थे. वे कई सामाजिक गतिविधियों में भी शामिल थे. इसी के साथ क्षेत्र में उनकी गतिविधियों को लेकर तनाव भी लम्बे समय से बरकरार था क्षेत्र के गैर ईसाइयों का आरोप था कि सामाजिक गतिविधियों की आड़ में वह धर्मांतरण करवा रहे थे।


ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स की हत्या की गंभीरता को देखते हुए एक सप्ताह के भीतर ही केन्द्र सरकार ने मामले की जांच के लिए जस्टिस डी पी वधवा की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन कर दिया था। ओडिशा सरकार ने एक महीने के अंदर स्टेन्स हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। भारतीय चर्च संगठनों और गैर सरकारी सगंठनों ने इस मामले को अंतरराष्ट्रीय तूल देने में कोई कसर बाकी नही रखी। जिस तरह से स्टेन्स और उनके दो नाबालिग बेटों की हत्या की गई थी मानवता में विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति इसे जायज नही ठहरा सकता। पुलिस रिकार्ड के मुताबिक स्टेन्स ने कार से निकलकर भागने की कोशिश की लेकिन भीड़ ने उसे भागने नही दिया। और पिता-पुत्रों को जिंदा ही जला दिया।


जस्टिस पी सतशिवम और जस्टिस बीएस चौहान की बेंच ने सजा सुनाते हुए कहा कि फंासी की सजा ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ मामले में दी जाती है। और यह प्रत्येक मामले में तथ्यों और हालात पर निर्भर करती है। मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी भर्त्सना के योग्य है। फिर भी यह दुर्लभत्म’ मामले की श्रेणी में नही आता है। अतः इसमें फांसी नही दी जा सकती। विद्ववान न्यायाधीशों ने अपने फैसले में यह भी कहा कि लोग ग्राहम स्टेन्स को सबक सिखाना चाहते थे। क्योंकि वह उनके क्षेत्र में धर्मांतरण के काम में जुटा हुआ था।


सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स की हत्या पर फैसला सुनाते हुए कहा गया कि किसी भी व्यक्ति की आस्था और और विश्वास में हस्तक्षेप करना और इसके लिए बल का उपयोग करना, उतेजना का प्रयाग करना, लालच का प्रयोग करना, या किसी को यह झूठा विश्वास दिलावना की उनका धर्म दूसरे से अच्छा है और ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हुए किसी व्यक्ति का धर्मातरंण करना (धर्म बदल देना) किसी भी आधार पर न्यायसंगत नही कहा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार के धर्मांतरण से हमारे समाज की उस संरचना पर चोट होती है जिसकी रचना संविधान निर्माताओं ने की थी। विद्वान न्यायाधीशों ने कहा कि हम उम्मीद करते है कि महात्मा गांधी का जो स्वप्न था कि धर्म राष्ट्र के विकास में एक सकारात्मक भूमिका निभाएगा वो पूरा होगा...किसी की आस्था को जबरदस्ती बदलना या फिर यह दलील देना कि एक धर्म दूसरे से बेहतर है उचित नही है।


अगर चर्च नेता चाहें तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मार्गदर्शक बन सकता है। चर्च खुद भी यह जानता है कि उसके धर्म प्रचार करने और ईसाइयत को फैलाने का क्या तरीका है? आज मणिपुर, नागालैड, आसम आदि राज्यों में मिशनरियों द्वारा अपना संख्याबल बढ़ाने के नाम पर खूनी खेल खेला जा रहा है। क्षेत्र के एक कैथोलिक बिशप ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में जाकर -बैपटिस्ट मिशनरियों से कैथोलिक ईसाइयों की रक्षा करने की गुहार लगा चुके है। गैर ईसाइयों की बात न भी करे तो ईसाई मिशनरियों के अंदर ही अपना संख्याबल बढ़ाने की मारामारी चलती रहती है। हालही में मध्य प्रदेश के कैथोलिक और कुछ गैर कैथोलिक चर्चो ने तय किया है कि वह ‘भेड़-चोरी’ को रोकेगे और दूसरे मिशनरियों के सदस्यों को अपने साथ नही मिलायेगे।


आज चर्च का पूरा जोर अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने पर लगा हुआ है इस कारण देश के कई राज्यों में ईसाइयों एवं बहुसंख्यक हिन्दुओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। धर्मांतरण की गतिविधियों के चलते करोड़ों अनुसूचित जातियों से ईसाई बने लोगों का जीवन चर्च के अंदर दायनीय हो गया है। चर्च नेता उन्हें अपने ढांचे में अधिकार देने के बदले सरकार से उन्हें पुनः अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की मांग कर रहे है। धर्मांतरित लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के बदले भारतीय चर्च तेजी से अपनी संपदा और संख्या को बढ़ता जा रहा है। चर्च लगातार यह दावा भी करता जा रहा है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है पर उसे इसका भी उतर ढूढंना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बाबजूद भारतीयों के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा कार्य चलाने वाले ग्राहम स्टेन्स को एक भीड़ जिंदा जला देती है और उसके धर्म-प्रचारकों के साथ भी टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो रहा है इसका उतर तो चर्च को ही ढूंढना होगा।

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