घोटालेबाजों के सरदार
1 लाख 77 हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, 70 हजार करोड़ से ज्यादा का कॉमनवेल्थ घोटाला, करोड़ों रूपए का आदर्श सोसाइटी और आईपीएल घोटाला। देश में एक के बाद एक बड़े घोटालों को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार को अलग से घोटाला मंत्रालय बनाना चाहिए या फिर घोटालों को वैधानिक मान्यता दे दी जानी चाहिए। जब देश में कानून और लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकार इन पर नकेल न डाल सके, ऐसे भ्रष्टाचारियों के आगे घुटने टेकते, मजबूर और लाचार दिखे, तो उम्मीद किससे की जाए?
मौजूदा दौर को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि नैतिकता ताक पर रख दी गई है। इस वक्त जो नैतिकता पर हावी है या फिर कहे की शक्तिमान है थ्री-पी (3च्) यानी पॉवर, पैसा और पॉलिटिक्स। वर्तमान समय में थ्री-पी शक्तिशाली है, ऐसे में जनसरोकार की बाते बेईमानी और बौनी नजर आती है। जो शक्तिशाली होता है वही इतिहास लिखता है और नायक, नायिका और खलनायक वही तय करता है। इसलिए सर्वमान्य नायकों-नायिकाओं की तलाश इतिहास में नहीं करनी चाहिए। लेकिन देश में भ्रष्टाचार का जो आलम है ऐसे वक्त में जेपी (जय प्रकाश नारायण) की याद आती है। 1977 में सत्ता के खिलाफ चलाया गया आंदोलन सिर्फ इमरजेंसी के खिलाफ ही नहीं था, बल्कि इस आंदोलन को जनता का जनसमर्थन मिला क्योंकि यह आंदोलन सत्ता में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या जे.पी. सरीखे नेता इस दौर में मौजूद है?
लेकिन यूपीए-टू की अध्यक्ष और देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी नैतिकता का पाठ मनमोहन सरकार को पढ़ाती हैं तो दूसरी तरफ उनका लाड़ला और कांग्रेस युवराज राहुल गांधी प्रधानमंत्री को बेदाग होने का सर्टिफिकेट देता हैं। वहीं मनमोहन सिंह सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहते है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। ऐसे में मिस्टर क्लीन की उपाधि से नवाजे जाने पर खुश होने वाले पीएम साहब से सवाल है कि जब यह सब उनकी नाक के नीचे उनकी टीम में शामिल डीएमके के मंत्री द्वारा धमका कर किया गया तो उस वक्त आपकी बोलती बंद क्यों रही? अब जब देश की गरीब जनता की कमाई स्विस बैंकों तक पहुंच गई है तो अब आप क्या तीर मार लेंगे? कहते है कि इतिहास से सबक लेना चाहिए। लेकिन कांग्रेस सबक लेना नहीं चाहती। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 1977 का भ्रष्ट दौर हो, राजीव गांधी का बोफोर्स कांड (1986) या फिर 1991 में कांग्रेस शासित पीवी नरसिम्हा की सरकार, सभी को जनता ने वनवास की सजा दी। इतना ही नहीं गरीबों के नाम पर गरीबी के साथ सत्ता में रहते हुए भाजपा ने जो कुछ किया, उसकी सजा भुगत रही है। जनता ने भ्रष्टाचार और गरीबी मिटाने का मुखौटा ओढ़े वाजपेयी सरकार को ऐसी सजा दी कि वो अब तक सजा भुगत रही है। तभी तो इतने बड़े मुद्दे, सामने होते हुए भी जनता इस विपक्ष को चवन्नी भर का भाव देने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के मिशन 2014 का क्या होगा, उसकी रिपोर्ट जनता खुद-ब-खुद तैयार कर रही होगी।
ऐसे में हरिवंश राय बच्चन की कविता याद आती है जिसमे वो कहते हैं- बैर कराते है मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला। वैसे ही राजनीति में कुर्सी की लड़ाई नेताओं और पार्टियों के बीच दरार भले ही ला दे, लेकिन जब बात भ्रष्टाचार की आती है तो सभी नेता एक साथ मयखाने में नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को लेकर सभी एक-दूसरे पर पत्थर फेंक रहे हैं लेकिन इन्हें कौन बताए कि पत्थर फेंकने से पहले खुद का शीशे से बना घर भी देख लेने चाहिए। आपको यकीन न हो तो एक नजर आजादी के बाद से अबतक के बड़े घोटालों पर नजर डाल लेते हैं- जीप घोटाला (1948), साइकिल आयात घोटाला (1951), मुंध्रा मैस (1957-58), तेजा लोन (1960), पटनायक मामला (1965), नागरावाला घोटाला (1971), मारूति घोटाला (1976), कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू सबमरीन घोटाला (1987), बिटुमेन घोटाला, तांसी भूमि घोटाला, सेंट किट्स केस (1989), अनंतनाग ट्रांसपोर्ट सब्सिडी स्कैम, चुरहट लॉटरी स्कैम, बोफोर्स घोटाला (1986), एयरबस स्कैंडल (1990), इंडियन बैंक घोटाला (1992), हर्षद मेहता घोटाला (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), जैन (हवाला) डायरी कांड (1993), चीनी आयात (1994), बैंगलोर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर (1995), जेएमएम संासद घूसकांड (1995 ), यूरिया घोटाला (1996), संचार घोटाला (1996), चारा घोटाला (1996), यूरिया (1996), लखुभाई पाठक पेपर स्कैम (1996), ताबूत घोटाला (1999) मैच फिक्सिंग (2000), यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001), बराक मिसाइल डील, तहलका स्कैंडल (2001), होम ट्रेड घोटाला (2002), तेलगी स्टाम्प स्कैंडल (2003), तेल के बदले अनाज कार्यक्रम ( 2005), कैश फॉर वोट स्कैंडल (2008), सत्यम घोटाला (2008),मधुकोड़ा मामला (2008), आदर्श सोसाइटी मामला (2010), कॉमनवेल्थ घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला।
घोटालों, भ्रष्टाचार की इस सूची के बाद भी सफेदपोश नेता और पार्टियां तू चोर-तो तू चोर नहीं, बल्कि तू बड़ा चोर और मैं छोटा साबित कर जनता के सामने सद्चरित्र दिखने की कोशिश में जुटी है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार सर्वजाति है चाहे वह देश हो या विदेश। सभी जगह स्वीकार्य हो गयी है। इससे को लेकर न कोई जात है, न अमीरी है न गरीबी। यह सभी को लुभाता है और हालिया सर्वे इस पर मुहर भी लगाता है। 2010 में संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा किया सर्वे चौंकाने वाला है। सर्वे बताता है कि 178 देशों में से एक तिहाइ देश भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं। भारत भी उन देशों में से एक हैं। सर्वे बताता है कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी ने कैसे देश की छवि को धूमिल किया है। मौजूदा वर्ष में 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, आईपीएल घोटालों की वजहों से भ्रष्ट मुल्कों की सूची में भारत चार चांद लगाते हुए 87वेें पायदान पर है। देश में करप्शन का आलम क्या है, इसका अंदाजा सर्वे से जुटाए आंकड़ों को देखकर लगता है। सर्वे बताता है कि मुल्क में घूसखोरी हर स्तर तक फैली हुई है। भारत में 86 फीसदी लोग रिश्वत मांगते है। जो जितने बड़े पद पर है वह उतना ही बड़ा रिश्वतखोर है। सर्वे के मुताबिक 91 प्रतिशत रिश्वत सरकारी कर्मचारियों द्वारा मांगी जाती है, जिनमें सबसे ज्यादा घूस यानी 33 फीसदी केंद्र में मौजूद नौकरशाह मांगते है। दूसरे नंबर पर पुलिस हैं जो 30 फीसदी के करीब हैं। सवाल यही आकर खत्म नहीं होता। जब लोगों से यह पूछा गया कि उनसे कितनी बार घूस मांगी गई, तो 90 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें दो से बीस बार तक घूस देने के लिए मजबूर किया गया।
ऐसे में जेपी का वो दौर याद आता है जो 1977 के छात्र आंदोलन से शुरू होकर व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में बदल जाता है। राजनीतिक क्षेत्र में जे.पी. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। वे चाहते थे कि प्रत्याशियों का चयन तथा सत्ता पर नियंत्रण जनता के द्वारा होना चाहिए। वे लोक चेतना के द्वारा जनता को जगाकर उसे लोकतंत्र का प्रहरी बनाना चाहते थे। ताकि कर्मचारी से लेकर डीएम, सीएम और पीएम तक सबके कामकाज पर निगरानी रखी जा सके। वे चाहते थे कि जन प्रतिनिधियों को समय से पूर्व वापस बुलाने का अधिकार उस क्षेत्र की जनता को मिले ताकि जन प्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र की जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। यह अलग बात है कि जे.पी. आंदोलन के गर्भ से निकले छात्र नेता स्वर्गीय चंद्रशेखर, लालू यादव, रामविलास पासवान, सुबोधकांत सहाय, यशवंत सिन्हा जैसे नेता कांग्रेस और बीजेपी की गोद में जाकर, सत्ता की चकाचौंध में इस तरह डूबे की जे.पी. की संपूर्ण क्रांति को ही भूल गए।
1 लाख 77 हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, 70 हजार करोड़ से ज्यादा का कॉमनवेल्थ घोटाला, करोड़ों रूपए का आदर्श सोसाइटी और आईपीएल घोटाला। देश में एक के बाद एक बड़े घोटालों को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार को अलग से घोटाला मंत्रालय बनाना चाहिए या फिर घोटालों को वैधानिक मान्यता दे दी जानी चाहिए। जब देश में कानून और लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकार इन पर नकेल न डाल सके, ऐसे भ्रष्टाचारियों के आगे घुटने टेकते, मजबूर और लाचार दिखे, तो उम्मीद किससे की जाए?
मौजूदा दौर को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि नैतिकता ताक पर रख दी गई है। इस वक्त जो नैतिकता पर हावी है या फिर कहे की शक्तिमान है थ्री-पी (3च्) यानी पॉवर, पैसा और पॉलिटिक्स। वर्तमान समय में थ्री-पी शक्तिशाली है, ऐसे में जनसरोकार की बाते बेईमानी और बौनी नजर आती है। जो शक्तिशाली होता है वही इतिहास लिखता है और नायक, नायिका और खलनायक वही तय करता है। इसलिए सर्वमान्य नायकों-नायिकाओं की तलाश इतिहास में नहीं करनी चाहिए। लेकिन देश में भ्रष्टाचार का जो आलम है ऐसे वक्त में जेपी (जय प्रकाश नारायण) की याद आती है। 1977 में सत्ता के खिलाफ चलाया गया आंदोलन सिर्फ इमरजेंसी के खिलाफ ही नहीं था, बल्कि इस आंदोलन को जनता का जनसमर्थन मिला क्योंकि यह आंदोलन सत्ता में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या जे.पी. सरीखे नेता इस दौर में मौजूद है?
लेकिन यूपीए-टू की अध्यक्ष और देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी नैतिकता का पाठ मनमोहन सरकार को पढ़ाती हैं तो दूसरी तरफ उनका लाड़ला और कांग्रेस युवराज राहुल गांधी प्रधानमंत्री को बेदाग होने का सर्टिफिकेट देता हैं। वहीं मनमोहन सिंह सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहते है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। ऐसे में मिस्टर क्लीन की उपाधि से नवाजे जाने पर खुश होने वाले पीएम साहब से सवाल है कि जब यह सब उनकी नाक के नीचे उनकी टीम में शामिल डीएमके के मंत्री द्वारा धमका कर किया गया तो उस वक्त आपकी बोलती बंद क्यों रही? अब जब देश की गरीब जनता की कमाई स्विस बैंकों तक पहुंच गई है तो अब आप क्या तीर मार लेंगे? कहते है कि इतिहास से सबक लेना चाहिए। लेकिन कांग्रेस सबक लेना नहीं चाहती। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 1977 का भ्रष्ट दौर हो, राजीव गांधी का बोफोर्स कांड (1986) या फिर 1991 में कांग्रेस शासित पीवी नरसिम्हा की सरकार, सभी को जनता ने वनवास की सजा दी। इतना ही नहीं गरीबों के नाम पर गरीबी के साथ सत्ता में रहते हुए भाजपा ने जो कुछ किया, उसकी सजा भुगत रही है। जनता ने भ्रष्टाचार और गरीबी मिटाने का मुखौटा ओढ़े वाजपेयी सरकार को ऐसी सजा दी कि वो अब तक सजा भुगत रही है। तभी तो इतने बड़े मुद्दे, सामने होते हुए भी जनता इस विपक्ष को चवन्नी भर का भाव देने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के मिशन 2014 का क्या होगा, उसकी रिपोर्ट जनता खुद-ब-खुद तैयार कर रही होगी।
ऐसे में हरिवंश राय बच्चन की कविता याद आती है जिसमे वो कहते हैं- बैर कराते है मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला। वैसे ही राजनीति में कुर्सी की लड़ाई नेताओं और पार्टियों के बीच दरार भले ही ला दे, लेकिन जब बात भ्रष्टाचार की आती है तो सभी नेता एक साथ मयखाने में नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को लेकर सभी एक-दूसरे पर पत्थर फेंक रहे हैं लेकिन इन्हें कौन बताए कि पत्थर फेंकने से पहले खुद का शीशे से बना घर भी देख लेने चाहिए। आपको यकीन न हो तो एक नजर आजादी के बाद से अबतक के बड़े घोटालों पर नजर डाल लेते हैं- जीप घोटाला (1948), साइकिल आयात घोटाला (1951), मुंध्रा मैस (1957-58), तेजा लोन (1960), पटनायक मामला (1965), नागरावाला घोटाला (1971), मारूति घोटाला (1976), कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू सबमरीन घोटाला (1987), बिटुमेन घोटाला, तांसी भूमि घोटाला, सेंट किट्स केस (1989), अनंतनाग ट्रांसपोर्ट सब्सिडी स्कैम, चुरहट लॉटरी स्कैम, बोफोर्स घोटाला (1986), एयरबस स्कैंडल (1990), इंडियन बैंक घोटाला (1992), हर्षद मेहता घोटाला (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), जैन (हवाला) डायरी कांड (1993), चीनी आयात (1994), बैंगलोर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर (1995), जेएमएम संासद घूसकांड (1995 ), यूरिया घोटाला (1996), संचार घोटाला (1996), चारा घोटाला (1996), यूरिया (1996), लखुभाई पाठक पेपर स्कैम (1996), ताबूत घोटाला (1999) मैच फिक्सिंग (2000), यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001), बराक मिसाइल डील, तहलका स्कैंडल (2001), होम ट्रेड घोटाला (2002), तेलगी स्टाम्प स्कैंडल (2003), तेल के बदले अनाज कार्यक्रम ( 2005), कैश फॉर वोट स्कैंडल (2008), सत्यम घोटाला (2008),मधुकोड़ा मामला (2008), आदर्श सोसाइटी मामला (2010), कॉमनवेल्थ घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला।
घोटालों, भ्रष्टाचार की इस सूची के बाद भी सफेदपोश नेता और पार्टियां तू चोर-तो तू चोर नहीं, बल्कि तू बड़ा चोर और मैं छोटा साबित कर जनता के सामने सद्चरित्र दिखने की कोशिश में जुटी है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार सर्वजाति है चाहे वह देश हो या विदेश। सभी जगह स्वीकार्य हो गयी है। इससे को लेकर न कोई जात है, न अमीरी है न गरीबी। यह सभी को लुभाता है और हालिया सर्वे इस पर मुहर भी लगाता है। 2010 में संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा किया सर्वे चौंकाने वाला है। सर्वे बताता है कि 178 देशों में से एक तिहाइ देश भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं। भारत भी उन देशों में से एक हैं। सर्वे बताता है कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी ने कैसे देश की छवि को धूमिल किया है। मौजूदा वर्ष में 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, आईपीएल घोटालों की वजहों से भ्रष्ट मुल्कों की सूची में भारत चार चांद लगाते हुए 87वेें पायदान पर है। देश में करप्शन का आलम क्या है, इसका अंदाजा सर्वे से जुटाए आंकड़ों को देखकर लगता है। सर्वे बताता है कि मुल्क में घूसखोरी हर स्तर तक फैली हुई है। भारत में 86 फीसदी लोग रिश्वत मांगते है। जो जितने बड़े पद पर है वह उतना ही बड़ा रिश्वतखोर है। सर्वे के मुताबिक 91 प्रतिशत रिश्वत सरकारी कर्मचारियों द्वारा मांगी जाती है, जिनमें सबसे ज्यादा घूस यानी 33 फीसदी केंद्र में मौजूद नौकरशाह मांगते है। दूसरे नंबर पर पुलिस हैं जो 30 फीसदी के करीब हैं। सवाल यही आकर खत्म नहीं होता। जब लोगों से यह पूछा गया कि उनसे कितनी बार घूस मांगी गई, तो 90 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें दो से बीस बार तक घूस देने के लिए मजबूर किया गया।
ऐसे में जेपी का वो दौर याद आता है जो 1977 के छात्र आंदोलन से शुरू होकर व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में बदल जाता है। राजनीतिक क्षेत्र में जे.पी. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। वे चाहते थे कि प्रत्याशियों का चयन तथा सत्ता पर नियंत्रण जनता के द्वारा होना चाहिए। वे लोक चेतना के द्वारा जनता को जगाकर उसे लोकतंत्र का प्रहरी बनाना चाहते थे। ताकि कर्मचारी से लेकर डीएम, सीएम और पीएम तक सबके कामकाज पर निगरानी रखी जा सके। वे चाहते थे कि जन प्रतिनिधियों को समय से पूर्व वापस बुलाने का अधिकार उस क्षेत्र की जनता को मिले ताकि जन प्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र की जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। यह अलग बात है कि जे.पी. आंदोलन के गर्भ से निकले छात्र नेता स्वर्गीय चंद्रशेखर, लालू यादव, रामविलास पासवान, सुबोधकांत सहाय, यशवंत सिन्हा जैसे नेता कांग्रेस और बीजेपी की गोद में जाकर, सत्ता की चकाचौंध में इस तरह डूबे की जे.पी. की संपूर्ण क्रांति को ही भूल गए।
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